व्यक्त, अव्यक्त और पुरुष के ज्ञान से दुःख की निवृत्ति अधिक उत्तम होती है
- Posted by Manovikas eGyanshala
- Categories Sachetan, Wellness
- Date January 5, 2022
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जीवन यानी जी और वन का मिलन। जी का मतलब प्राण और वन का मतलब प्रकृति। जब प्राण और प्रकृति का संयोग होता है तब जीवन प्रारंभ होता है। इस सृष्टि में दो मूलभूत तत्व हैं एक पुरुष तथा दूसरा प्रकृति। इसमें पुरुष स्वतंत्र सत्ता है तथा चेतन है एवं प्रकृति के अन्तर्गत 24 तत्व माने गये हैं। सृष्टि रचना में प्रकृति पहले अव्यक्त अवस्था में रहती है। यहाँ तक की जन्म से पूर्व नवजात शिशु भी प्रकृति की सृष्टि रचना से अव्यक्त होता है।
अव्यक्त शब्द का प्रयोग प्रकृति तथा ब्रह्म के लिये किया जाता है। ॐ अव्यक्त है अर्थात् जो व्यक्त नहीं है। वेद में अव्यक्त प्रकृति, पुरुष (अविनाशी जीव), ब्रह्म के लिए प्रयोग होता है। सृष्टि पूर्व में अपने कारण अवस्था में लीन थी अर्थात अव्यक्त थी वह इस अवस्था में थी जिसे किसी भी उपकरण या मन , बुद्धि, इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सके जिसे वेद में अव्यक्त कहा अर्थात जो इंद्रियों से परे हो या जिसका ज्ञान या अनुभव इंद्रियों से न हो सके।
यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है। चेतन पुरुष के संसर्ग से प्रकृति में विक्षोभ होता है और प्रकृति की साम्यावस्था टूटती है और प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त होने लगती है। जब तक जीवन है तब तक वह व्यक्त है और मृत्यु के पश्चात् वह पुनः अव्यक्त हो जाता है| यह व्यक्त होने की प्रक्रिया सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है।
प्रकृति की त्रिगुणात्मक साम्यावस्था सत्व, रज, और तमो गुण है। इन गुणों में चेतन के संयोग से वैषम्य होने लगता है। प्रकृति की त्रिगुणात्मक अवस्था से पूर्व सृष्टि का सारा कार्य जगत् इसी में अव्यक्त रूप से रहता है, इसलिए इसे अव्यक्त कहते है। इसी से सर्ग यानी निर्माण, सृजन, रचना, स्वभाव, संकल्प, प्रयत्न या फिर चेष्टा से जीवन को आगे बढ़ाने का काम प्रारंभ होता है अतः इसे मूल प्रकृति या प्रधान कहते हैं। यद्यपि यह प्रकृति, पुरुष के अपवर्ग के लिए बना है जो बिना किसी स्वार्थ के लिए प्रवृत्त होती है।
प्रकृति सर्वप्रथम अपने सात्विक अंश से जिस तत्व को उत्पन्न करती है वह महत्व तथा बुद्धि तत्व कहलाता है। सत्व प्रधान होने से इसमें लघुत्व एवं प्रकाश रहते हैं। यह अध्यवसायात्मक हैं। अर्थात किसी भी चीज का निश्चय करना इसका स्वरूप है। निश्चय ही मूल्य दृष्टि या मूल्य-अंकन उसके गुणों (सत्व आदि) के आधार पर किया जा सकता है। निश्चय का यह मूल्यांकित रूप ही बुद्धि के कार्य अथवा रूप कहे जा सकते हैं। पुरुष के भोग और अपवर्ग का मुख्य साधन यह बुद्धि ही है। प्रकृति और पुरुष के सूक्ष्म भेद की अभिव्यक्ति इसी से होती है। इसके दो प्रकार के धर्म हैं- सात्विक और तामस।
सात्विक-धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य। तामस-अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य। ये आठ धर्म ही भाव कहलाते हैं। जिनमें 7 से तो पुरुष का बन्ध होता है और 1 ज्ञान से मोक्ष होता है।
अपवर्ग का अर्थ मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति, जन्म मरण के बंधन से छुटकारा पाना । उदाहरण के लिए रामायण में कहा गया है की “तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।”
हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है।
पुरुष तो जैसे बिछी हुई शैय्या के समान है। जैसे कोइ नबजात बच्चा जन्म के समय इस प्रकृति से अनभिज्ञ होता है। स्वयं अपने लिए उसका कोई उपयोग नहीं होता। उसे देखकर अनुमान होता है कि कोई ( इस शय्या से भिन्न ) व्यक्ति है जो इसका उपयोग करेगा। इसी प्रकार प्रकृति भी जड़ है, उसका स्वयं अपने लिए कोई उपयोग नहीं। अतः इस जड़ प्रकृति गुणसमूल का उपयोग करने के लिए किसी चेतन पुरुष की कल्पना आवश्यक है। यह चेतन पुरुष, दृष्टा ( साक्षी मात्र ), भोक्ता, एकरस अर्थात अपरिणामि और असंहत है, जबकि गुण अचेतन, दृश्य, भोग्य, परिणामी और सहंत है।
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