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      धारणा Conviction

      • Posted by Manovikas eGyanshala
      • Categories Sachetan, Wellness, अष्टांग योग Ashtanga Yog
      • Date November 16, 2021
      • Comments 0 comment

      स्वामी विवेकानन्द के अनुसार धारणा का अर्थ है मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में धारण या स्थापन करना। अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या स्थिर कर देने का अभ्यास धारणा कहलाता है।

      धारणा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है- आधार, नींव।’ अर्थात ध्यान की नींव, ध्यान की आधारशिला। धारणा से ही ध्यान तक अच्छी तरह जाया जा सकता है। धारणा परिपक्व होने पर ही ध्यान में प्रवेश मिलता है। कठोपनिषद् में धारणा को परिभाषित करते हुए सूत्र लिखा है – ‘तां योगमिति मन्यते स्थिरामिन्दिय धारणम्’। अर्थात मन और इंद्रियों का दृढ़ नियंत्रण ही धारणा योग है। वहीं,योगदर्शन (3/1) के अनुसार ‘देशबंधचित्तस्य धारणा’ अर्थात चित्त को किसी एक निश्चित स्थान विशेष मे स्थिर कर देना। यहां मन को स्थान विशेष में धारण करने का अर्थ है मन को शरीर के अन्य स्थानों से हटाकर किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना।

      हमारे आस-पास हर दिन अलग-अलग उत्तेजनाएं हमारे भाव अंगों को उत्तेजित करती हैं। इन उत्तेजनाओं में से कई हमारे भावना अंगों द्वारा प्राप्त की जाती हैं और संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। ये संवेदनाएं मस्तिष्क के संबंधित भागों में संचरित होती हैं। बदले में मस्तिष्क इन संवेदनाओं की व्याख्या करेगा। इस तरह की व्याख्या के बाद ही हम समझते हैं कि उत्तेजना क्या है।

      इसलिए हमारे आसपास की दुनिया को समझने में, ध्यान सबसे पहले होता है, उसके बाद संवेदना और अंत में मस्तिष्क द्वारा व्याख्या।

      ‘उत्तेजना की व्याख्या’ की इस प्रक्रिया को धारणा के रूप में जाना जाता है। इसलिए धारणा में दो प्रक्रियाएं शामिल हैं: सनसनीखेज और  व्याख्या। लेकिन किसी भी उत्तेजना की व्याख्या के लिए पिछले अनुभव की भी आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा जिसने पहले हाथी को या तो फोटो में नहीं देखा है या सीधे उस जानवर की पहचान नहीं कर सकता है, जबकि दूसरा बच्चा जिसने पहले देखा है वह जानवर की आसानी से पहचान कर लेगा।

      इसलिए, धारणा को “पिछले अनुभव के आधार पर वर्तमान उत्तेजना की व्याख्या की प्रक्रिया” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

      कई कारणों से प्राय: हम मन एक स्थान पर नहीं टिका पाते। जैसे मन की जड़ता को स्वीकार ना करना। सात्विकता की कमी और सांसारिक पदार्थों व सांसारिक-संबंधों में मोह रहना। बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना। मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना। ऐसे अनेक कारण हैं, जिन से मन धारणा स्थल पर टिका हुआ नहीं रह पाता। इन कारणों को प्रथम अच्छी तरह जान लेना चाहिए, फिर उनको दूर करने के लिए निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन एक स्थान पर लम्बी अवधि तक टिक सकता है, क्योंकि कुछ साधक ऐसे होते हैं जो धारणा के महत्व को नही समझ पाते और सीधे ध्यान में जाने का प्रयास करने लगते है, इससे नुकसान होता है। उनका न तो ध्यान ही लगता है और न ही वे धारणा में जा पाते है, इससे केवल उनका बहुमूल्य समय व्यर्थ होता है। इसलिए धारणा के बाद ही ध्यान में जाने का विधान बताया गया है।

      प्रारंभिक योग साधको, योगियों को ध्यान करते समय ध्यान की अवस्था मे बीच-बीच में धारणा स्थल का ज्ञान बनाए रखना चाहिए जिससे मन मे भटकाव की अवस्था उत्पन्न न हो पाए। यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि बिना धारणा बनाए ध्यान समुचित रूप में नहीं हो सकता। चूंकि धारणा से एकाग्रता बढ़ती है और इससे अनेक कार्य संपन्न होते हैं क्योंकि हमारी मानसिक ऊर्जा एक बिन्दु पर होती है। आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के कार्यों के लिए धारणा आवश्यक है। कोई भी छोटा से छोटा कार्य हो, उसे एकाग्रता से करने की आवश्यकता होती है।

      बिना एकाग्रता के हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। जबकि एकाग्र मन वाला व्यक्ति कोई भी कार्य अधिक दक्षतापूर्वक कर सकता है। अत: दैनिक जीवन के साथ ही साथ आध्यात्मिक साधना के लिए धारणा आवश्यक है। उदाहरण के लिए हम मन की तुलना बल्ब से कर सकते हैं। एक बिजली के बल्ब का प्रकाश सभी दिशाओं में फैलता है, ऊर्जा बिखरती रहती है। आप उस बल्ब से पांच फुट की दूरी पर ताप का अनुभव नहीं कर सकते। यद्यपि उस बल्ब के मध्य स्थित फिलामेंट में पर्याप्त ताप विद्यमान होगा।

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