सचेतन SACHETAN: के पिछले अंक में
"गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं" की चर्चा हुई थी
Guru is Narayan in human form.
निषेकादिनी कर्माणि यः करोति यथाविधि।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥
जो विप्र निषक आदि संस्कारों (जिस कर्म से सर्व कष्ट का नाश) को यथा विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह 'गुरु' कहलाता है। इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात पुरोहित, शिक्षक आदि। मंत्रदाता को भी गुरु कहते हैं।
पिता, ज्येष्ठ भ्राता, राजा, मामा, ससुर,रक्षक, मातामह, पितामह, अपने से श्रेष्ठ वर्ण वाले तथा । चाचा- ये लोग गुरु कहे गये हैं। माता, मातामही | गुरु पत्नी, पिता एवं माता की बहन (बुआ एवं मौसी), सास, पितामही तथा ज्येष्ठ धात्री (शैशवावस्था में पालन करने वाली) – ये सभी स्त्रियां गुरु हैं। द्विजो! माता और पिता के सम्बन्ध से यह गुरुवर्ग कहा गया है : माताके पक्ष से तथा पिता के पक्ष से जो लोग श्रेष्ठ कोटि में हैं उन्हें बताया गया। मन, वाणी और कर्म द्वारा इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये.
बताये गये सभी गुरुओं में भी पांच विशेष रूप से पूजनीय हैं। उनमें प्रथम तीन श्रेष्ठ हैं, उनमें भी माता अधिक पूज्य होती है। उत्पादक (पिता), करने वाली (माता), विद्या का उपदेश देने वाले (गुरु), उत्पन्न बड़े भाई और भरण-पोषण करने वाले स्वामी—ये पाँच गुरु कहे गये हैं। कल्याण चाहने वाले व्यक्ति को अपने सभी प्रयत्नों के द्वारा प्राण ही क्यों न त्यागना पड़े, पर इन पाँचों (गुरुओं) का विशेष रूप से पूजन (आदर) - करना चाहिये
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