श्री वशिष्ठ जी कहते हैं- रघुनन्दन! इस संसार में ब्रह्मा से लेकर स्थावर/स्थायी पर्यन्त सभी जाति के प्राणियों के सदा दो-दो शरीर होते हैं। एक तो मनोमय शरीर होता है, जो शीघ्रता पूर्वक सब कार्य करने वाला और सदा चंचल है। दूसरा मांस का बना हुआ स्थूल शरीर है, जो मन के बिना कुछ नहीं कर सकता।
उक्त दोनों शरीर में से जो मांस मय स्थूल शरीर है, वह सभी लोगों को प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इसी पर सब प्रकार के श्रापों, विद्याओं (आभिचारिक कृत्यों) तथा विष, शस्त्र आदि विनाश के साधन-समूहों का आक्रमण होता है। यह मांस मय शरीर असमर्थ, दीन, क्षणभंगुर, कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल के समान चञ्चल तथा प्रारब्ध आदि के अधीन है।
देहधारियों का जो यह मन नामक दूसरा शरीर है, वह तीनों लोकों में प्राणियों के अधीन होकर भी प्रायः अधीन नहीं रहता। वह शांति से बने रहने वाले धैर्य का अवलम्बन करके अपने पौरुष के सहारे स्थित होता है, तो दुःखों की पहुँच से बाहर हो जाता है— दुःख के हेतुभूत जो दोष है, वे उसे दूषित नहीं करते। प्राणियों का मनोमय शरीर जैसे-जैसे चेष्टा करता है, वह अपने निश्चय के एकम यानी आत्मा के फल का भागी होता है।
मांस मय देह (पाञ्चभौतिक | स्थूल शरीर) – का कोई भी पौरुष-क्रम सफल नहीं होता, परंतु मनोमय शरीर की प्रायः सभी चेष्टाएँ साफ होती हैं (क्योंकि मन ही प्रधान है) ।
ऋषियों ने मानसिक पुरुषार्थ से मन को रोग रहित और दुःख शून्य बना सम्पूर्ण क्लेश पर विजय प्राप्त कर ली थी। अंधकारपूर्ण कुएं में गिरे होने पर भी दीर्घतपा ऋषि ने मानसिक यज्ञ का ही अनुष्ठान करके देवताओं का पद (स्वर्गलोक) प्राप्त कर लिया था।
दूसरे भी जो सावधान धीर देवता और महर्षि हैं, वे मनसे की जाने वाली उपासना अथवा ध्यान का तनिक भी त्याग नहीं करते। संसार में सावधान चित्त वाला कोई भी पुरुष कभी स्वप्न अथवा जागरण में भी दोष-समूहों से थोड़ा-सा भी अभिभूत नहीं होता। इसलिए पुरुष को चाहिये कि वह इस संसार में पुरुषार्थ के साथ अपनी बुद्धि के द्वारा ही अपने मन को पवित्र मार्ग में लगाये। जैसे कुम्हार के घट-निर्माण सम्बन्धी व्यापार के अनन्तर घड़ा अपने मृत्पिण्ड अवस्था को त्याग देता है, उसी प्रकार पुरुष उत्तर पदार्थ की वासना के पश्चात् पूर्वकी स्थितिका त्याग कर देता है (तात्पर्य यह है कि आगे की दृढ़ भावना से पिछली वासना नष्ट हो जाती है)।