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एक छोटा सा गाँव और एक बड़ी चाह

  • Posted by Manovikas eGyanshala
  • Categories Advocacy, Disability, Self-advocacy
  • Date January 10, 2025

डॉ आलोक कुमार “भुवन”
www.alokbhuwan.org 

गाँव के कोने में बनी एक छोटी-सी गली में रहने वाला रोहन, एक बौद्धिक और विकासात्मक दिव्यांग (IDD) है। उसकी उम्र चौदह साल है। उसके परिवार में उसकी माँ, पिताजी, और एक बड़ी बहन रहती है। सब लोग रोहन को बहुत प्यार करते हैं, लेकिन कभी-कभी वे उसे इतना संभालकर रखते हैं कि उसे खुद कुछ चुनने की आज़ादी नहीं मिल पाती।

परिवार का सावधानीभरा (Overprotection) माहौल

रोहन की माँ उसे अक्सर ज़रूरत से ज़्यादा सुरक्षित रखने की कोशिश करती है।

  • अगर रोहन कहे कि उसे बाहर खेलना है, तो माँ सोचती हैं, “उसे चोट लग गई तो?”
  • अगर वह अपनी टी-शर्ट खुद चुनना चाहे, तो माँ कहती हैं, “मैंने पहले ही निकाल दी है, तुम यही पहन लो।”

धीरे-धीरे रोहन को लगा कि वह अपने छोटे-छोटे फैसले भी खुद नहीं ले सकता। उसे इस बात का भी डर सताने लगा कि कहीं उसने कुछ ग़लत कर दिया, तो सब उसका मज़ाक उड़ाएँगे।

उसके पिता भी चाहते थे कि वह सुरक्षित रहे, इसीलिए वे कभी-कभी सोचते, “शायद रोहन अपना फैसला नहीं ले पाएगा।” हालाँकि, वे उसे प्यार तो बहुत करते थे, लेकिन भरोसा कम करते थे।

आस-पड़ोस का रवैया (Stigma)

रोहन को सबसे अधिक दिक्कत बाहर के लोगों से होती थी।

  • कुछ पड़ोसी उसे देख कहते, “अरे, बेचारा़ कुछ समझता ही नहीं होगा।”
  • जब रोहन दुकान पर कुछ खरीदने जाता, तो कई बार दुकानदार उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देता।

इस वजह से रोहन का आत्मविश्वास कम हो गया। उसे लगता था कि लोग उसकी काबिलियत पर विश्वास ही नहीं करते। वह चाहकर भी अपनी बात खुलकर नहीं रख पाता था।

स्कूल और आगे का भविष्य

स्कूल में भी कुछ बच्चे सोचते थे कि रोहन उनके साथ प्रोजेक्ट या खेल-कूद में हिस्सा नहीं ले सकता।

  • एक बार खेल दिवस पर, रोहन ने दौड़ में भाग लेना चाहा। कुछ बच्चों ने कहा, “ये कैसे दौड़ेगा?”
  • रोहन के अध्यापक ने उसे समझाया, “तुम कोशिश करो, रोहन! तुम कर सकते हो।”

अध्यापक ने स्कूल के बाकी बच्चों को बताया कि रोहन भी बाकी बच्चों की तरह ही मेहनत कर सकता है, बस उसे समझने और थोड़ा सहारा देने की जरूरत है। हालाँकि, कई बार स्कूल की तरफ से भी सही ट्रेनिंग या संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाते थे।

रोज़मर्रा की चुनौतियाँ

  1. आत्मविश्वास की कमी: लगातार नकारात्मक बातें सुनने से रोहन को लगता था, “मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा।”
  2. निर्णय लेने में झिझक: वह हमेशा डरता था कि कहीं ग़लत फैसला न हो जाए और परिवार या दोस्त उसका मज़ाक न उड़ाएँ।
  3. संचार में दिक्कत: रोहन को जल्दी-जल्दी बोलना या समझना मुश्किल लगता था, जिससे कभी-कभी वह अपनी ज़रूरतें या इच्छाएँ बता नहीं पाता था।

चुनौती: “तुम नहीं कर पाओगे”

सबसे बड़ी मुश्किल थी लोगों की सोच—“रोहन कुछ नहीं कर पाएगा।”

  • कुछ रिश्तेदार भी सोचते थे कि वह अपना भविष्य तय करने के क़ाबिल नहीं है।
  • कई बार माँ-पिता उसकी बात सुन ही नहीं पाते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि रोहन को समझ ही नहीं होगा।

रोहन के लिए यह दोहरी चुनौती थी—एक तरफ़ उसे खुद को साबित करना (Constant Need to Prove Oneself), दूसरी तरफ़ रोज़मर्रा की जिंदगी में आगे बढ़ना। 

बदले की हवा: एक दिन सब बदल गया

एक सुबह रोहन की बहन ने इंटरनेट पर “मनभावन मित्र मंडली” के बारे में पढ़ा। यह एक सेल्फ एडवोकेसी समूह था, जहाँ IDD वाले लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, अपनी समस्याओं पर बातें करते हैं और समाधान निकालते हैं।

  • बहन ने माँ-पिता से कहा, “क्यों न हम भी रोहन को इनकी मासिक मीटिंग में ले जाएँ? वहाँ उसकी बातें सुनी जाएँगी, और शायद वह नई चीज़ें सीख पाए।”
  • परिवार को यह आइडिया पसंद आया। हालाँकि, पहले माँ डर रही थीं कि रोहन अकेला कैसे जाएगा, लेकिन पिता ने समझाया, “हमें उसे मौका देना होगा।”

पहली बैठक का अनुभव

रोहन मनभावन मित्र मंडली की मासिक बैठक में गया। उसे बहुत अच्छा लगा, क्योंकि:

  • वहाँ सबकी बातें आसान भाषा (Easy-Read) में लिखी गई थीं, ताकि सब लोग समझ सकें।
  • रोहन से किसी ने नहीं कहा, “तुम नहीं कर पाओगे।” बल्कि सबने उसकी राय सुनना चाहा।
  • दूसरे सेल्फ एडवोकेट ने बताया, “मैं भी तुम्हारी तरह ही सोचता था कि कुछ नहीं कर पाऊँगा, लेकिन अब मैं अपने छोटे-छोटे फैसले खुद लेता हूँ।”

उस दिन रोहन ने पहली बार खुलकर अपने मन की बात रखी। उसने कहा, “मैं भी अपने कपड़े खुद चुनना चाहता हूँ और खेल दिवस पर दौड़ में हिस्सा लेना चाहता हूँ।”

परिवार में बदलाव

जब रोहन घर लौटा, तो उसकी माँ ने उसे देखते ही कहा, “आज तुम बहुत खुश लग रहे हो।” रोहन ने बताया कि उसने बैठक में अपनी बात रखी, और सबने उसकी हौसलाअफज़ाई की।

  • माँ ने सोचा, “शायद मैं रोहन की सुरक्षा के चक्कर में उसका आत्मविश्वास कम कर रही थी।”
  • पिताजी ने कहा, “कल से तुम खुद तय करोगे कि तुम्हें क्या पहनना है, और अगर तुम बाहर जाना चाहो, तो हमें बताना, हम मदद करेंगे।”

इस बदलाव से रोहन को लगा कि उसका परिवार अब उसकी बात पर भरोसा कर रहा है।

छोटे-छोटे फ़ैसलों से शुरुआत

अगले दिन सुबह, रोहन ने खुद अपनी टी-शर्ट चुनी। माँ ने उसे टोकने की बजाय मुस्कुराकर कहा, “अच्छा चुनाव है!”

  • दोपहर में वह दुकान तक चॉकलेट लेने गया। माँ ने उसे जाने दिया, बिना किसी डर के।
  • शाम को परिवार में चर्चा हुई कि रविवार को कहाँ घूमने जाना है। रोहन से भी पूछा गया, और उसकी पसंद मान ली गई।

इन छोटे-छोटे कदमों से रोहन का आत्मविश्वास बढ़ने लगा। उसे लगा कि उसका फैसला मायने रखता है।

स्कूल में भी बदली फिज़ा

रोहन ने स्कूल के खेल दिवस पर दौड़ में भाग लेने का फ़ैसला किया। अध्यापक और दोस्त उसकी हिम्मत बढ़ाने लगे।

  • हालाँकि, कुछ लोग अब भी शक कर रहे थे, लेकिन रोहन को अपने परिवार और नए दोस्तों का साथ मिला।
  • उसने दौड़ पूरी की—भले ही पहले स्थान पर नहीं आया, लेकिन उसने खुद पर भरोसा करना सीखा।

मनोविकास संस्थान का सहयोग

रोहन की बहन ने “मनोविकास” नाम के संस्थान के बारे में सुना, जहाँ

  • बौद्धिक और विकासात्मक दिव्यांगजन को मुख्यधारा की शिक्षा में शामिल करने पर ज़ोर दिया जाता है।
  • स्वतंत्र जीवन (Independent Living) के मॉडल पर रेजिडेंशियल और रिस्पाइट केयर की सुविधा है, ताकि IDD वाले बच्चे और युवा खुद की देखभाल सीख सकें।
  • “अपनी पसंद बनाना” जैसी कार्यशालाएँ होती हैं, जहाँ तीन स्तरों पर स्वनिर्णय सिखाया जाता है: मुझे सुनो (Listen to Me), अपनी पसंद का करियर (My Career Choice), और स्वयं वकालत (Self Advocacy)।

भविष्य की राह

रोहन ने भी “अपनी पसंद बनाना” कार्यशाला में हिस्सा लिया। वहाँ उसे:

  1. कैसे “ना” कहें,
  2. कैसे अपनी पसंद के करियर पर बात करें,
  3. कैसे खुद के लिए वकालत करें,
    जैसी कई नई बातें सीखने को मिलीं।

परिवार ने भी सोचा कि अगर रोहन कॉलेज जाना चाहे, तो वे “थिंक कॉलेज!” परियोजना की मदद ले सकते हैं, जहाँ IDD वाले छात्रों को समावेशी उच्च शिक्षा दी जाती है।

आत्मविश्वास का नया संसार

धीरे-धीरे रोहन ने Self-Determination Scale (SDS-IDD) पर अपना आकलन भी किया।

  • उसने ऑनलाइन 25 सवालों के जवाब दिए, और उसे एक रिपोर्ट मिली, जिसमें बताया गया कि उसे किन क्षेत्रों में ज़्यादा मदद की ज़रूरत है।
  • इस रिपोर्ट की मदद से रोहन के परिवार, अध्यापकों, और काउंसलर्स ने उसके लिए एक खास योजना बनाई, ताकि वह अपनी ताकत और कमज़ोरियों को समझकर आगे बढ़ सके।

मनभावन मित्र मंडली में भागीदारी

हर महीने, रोहन अब “मनभावन मित्र मंडली” की बैठक में जाता है।

  • वहाँ उसकी मुलाक़ात 38 से ज़्यादा ऐसे दोस्तों से हुई, जो अलग-अलग तरह की चुनौतियों का सामना करते हैं।
  • सभी एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और नए विचार साझा करते हैं।
  • कभी-कभी वे आसान भाषा में बनाई गई चिट्ठियाँ पढ़ते हैं, ताकि हर कोई समझ सके कि मीटिंग में क्या होने वाला है।

कहानी का सार

रोहन की कहानी हमें बताती है कि:

  • छोटे-छोटे फैसलों से शुरुआत करके, बौद्धिक और विकासात्मक दिव्यांगजन (IDD) भी अपना आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं।
  • परिवार, अध्यापक, और समाज अगर थोड़ा सकारात्मक रवैया रखें, तो IDD वाले बच्चे भी आगे बढ़ने की हिम्मत दिखाते हैं।
  • मनोविकास जैसे संस्थान या “मनभावन मित्र मंडली” जैसे समूहों का सहयोग उन्हें अपनी बात रखने का मंच देता है।
  • सबसे ज़रूरी है कि हम उनकी राय सुनें, उन्हें मौका दें, और याद रखें: “वे कर सकते हैं!”

अंत में…

अब रोहन पहले से कहीं ज़्यादा ख़ुश रहता है। वह जानता है कि उसके आसपास ऐसे लोग हैं, जो उसकी मदद करने के लिए तैयार हैं। सबसे बढ़कर, उसे यह एहसास हो गया है कि उसकी खुद की पसंद और फैसले भी मायने रखते हैं।

अगर आपके मन में भी कोई सवाल हैं या आप जानकारी चाहते हैं, तो मनोविकास और मनभावन मित्र मंडली से जुड़ सकते हैं। https://manovikasfamily.org/gyanshala/self-advocacy/
याद रखें, हम आपके लिए हैं—और अपने बच्चे को स्वनिर्णय की राह पर आगे बढ़ाने के लिए सबसे ज़रूरी आपका प्यार और भरोसा है!

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