प्रकृति अर्थात् ‘प्र = विशेष’ और ‘कृति = किया गया’। स्वाभाविक की गई चीज़ नहीं विशेष रूप से की गई चीज़, ही प्रकृति है। प्रकृति का अर्थ सामान्यतः प्रकृति से हमारा तात्पर्य हमारे चारों ओर बिखरे नैसर्गिंक वातावरण, जिसे छंजनतम कहते हैं अथवा किसी वस्तु के स्वभाव को उसकी प्रकृति कहा जाता है । सही मायने में प्रकृति नैसर्गिक पदार्थाें की जननी है। नैसर्गिक का अर्थ है प्राकृतिक तौर पर, इसे लाज़मी भी कहा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर: कोई गलत काम होने पर उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया होना नैसर्गिक होता है।

कहते हैं की प्रकृति न केवल नैसर्गिक भौतिक पदार्थों की, वरन् वह हमारे मानसिक तत्वों यथा मन, बुद्धि आदि की भी जननी है। वस्तुतः हमारी आत्मा जिसे ‘पुरूष’ कहा जाता है उसको छोड़कर संसार में सब कुछ उत्पन्न हुआ है और सबका मूल कारण यही प्रकृति है। प्रकृति की विशेषताएँ:- प्रकृति समस्त भौतिक एवं मानसिक जगत का मूल कारण है

  1. अत्यंत सूक्ष्त तत्व – प्रकृति इतनी सूक्ष्म है कि हम इसका प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। हम केवल जगत को देखकर इसके कारण के रूप में ‘प्रकृति’ के अस्तित्व का अनुमान कर सकते हैं।
  2. अहेतु – प्रकृति सबका कारण है किन्तु प्रकृति का कोई कारण नहीं है। इसलिए इसे अहेतु कहा गया है। यह ‘अमूलम् मूल’ अर्थात् बिना मूल (कारण) की मूल है।
  3. नित्य एवं अनश्वर – प्रर्व+कृति (प्र+कृति) = जो पूर्व से ही स्थित हो, दूसरे शब्दों में जो अनादिकाल से हो। अनादि काल से स्थित यह प्रकृति निश्चय हीं नित्य होगी, क्योंकि जो अनादि है वह अनंत भी होता है। नित्य होने से उसका अनश्वर होना भी सिद्ध होता है।
  4. सर्वव्यापक – इससे सम्पूर्ण जगत उत्पन्न होता है।
  5. अक्रिय – सर्वव्यापक है, अतः उसे क्रिया की अपेक्षा नहीं है।
  6. एक – प्रकृति अनेक पदार्थों की कारण है, अतः वह एक है।
  7. अनाश्रित – प्रकृति कोई कार्य नहीं है, अतः उसकी उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है जिस पर वह आश्रित रहे, अतः वह अनाश्रित है।
  8. अलिंग – अर्थात् ‘लय न होना’। चूंकि प्रकृति का कोई कारण नहीं है, अतः उसका अपने कारण में लय होना संभव नहीं है, इसलिये उसे अलिंग भी कहा गया है।
  9. निरवयव – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये अवयव प्रकृति में नहीं होते इसलिए वह निरवयव है।
  10. स्वतंत्र – प्रकृति अकारण होने के कारण किसी के अधीन नहीं है, अतः वह स्वतंत्र है। अब तक हमने प्रकृति के कार्य अर्थात् व्यक्त पदार्थों की विरोधी हैं, पर अब हम व्यक्त पदार्थों की भी विशेषताएँ देखेंगे।
  1. त्रिगुणात्मिका – सत्, रज और तम् इन तीन गुणों की साम्यावस्था ही वस्तुतः प्रकृति है।
  2. अविवकी – प्रकृति में विवेक नहीं होता।
  3. विषय – प्रकृति विषय है जो चैतन्य पुरूष द्वारा यह उपभोग के योग्य है, अर्थात् इसका उपभोग पुरूष करता है।
  4. अचेतन – प्रकृति जड़ है।
  5. सामान्य – जिस तरह वेश्या जो रूपया दे उसकी हो जाती है, उसी तरह प्रकृति भी सर्वसाधारण के उपभोग के लिये है।
  6. प्रसवधर्मी – यह उत्पन्न करने के स्वभावशाली है।

प्रकृति के तीन गुण से ( सत्त्व , रजस् और तमस् ) सृष्टि की रचना हुई है । ये तीनों घटक सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं । इन तीनों के बिना किसी वास्तविक पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं है। किसी भी पदार्थ में इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण उस का चरित्र निर्धारित होता है।

जो आत्मज्ञानी नहीं हैं उनके लिए संसार अपने विरोधावास के साथ बना रहता है परन्तु जो आत्मज्ञानी हैं उनके लिए इस संसार का अस्तित्त्व ही नहीं होता है। जो व्यक्ति ज्ञान में जाग गए हैं उनके लिए कोई दुःख नहीं रहता है। उनकी दृष्टि से संसार एकदम अलग ही दिखता है। आत्मज्ञानी के लिए इस संसार का कण कण आनंद से भरा होता है या उसी चैतन्य का भाग होता है परन्तु दूसरे लोगों के लिए यह संसार उनकी दृष्टि के अनुसार मौजूद रहता है।