निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्. (Nimitta Mātraṁ Bhava Savyasachin ( Arjuna ) ) Only be an instrument Savyasachin
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।11.33।। ( Bhagwad Gita )Embracing the profound wisdom of the Bhagavad Gita, the verse “निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्” (Nimitta Mātraṁ Bhava Savyasachin – Only be an instrument, O Arjuna) serves as a timeless reminder to transcend ego and embrace one’s role as a mere instrument in the grand cosmic design. In Bhagavad Gita 11.33, Lord Krishna urges Arjuna to stand up, conquer his enemies, and enjoy a prosperous kingdom, assuring him that the victory has already been ordained. The essence lies in recognizing that we are instruments of a higher power and success results from divine orchestration rather than individual ego. As we delve into the deeper meaning of this verse, it encourages us to rise above the illusion of being the sole doers in our actions. In the complexities of life, the ego often blinds us with the notion of “I am doing this; I am achieving that.” However, the truth is beautifully expressed – we are instruments, conduits through which the divine unfolds its plan. In the face of challenges, victories, and the pursuit of success, it becomes imperative to understand that the outcomes are predetermined, and we must act with sincerity, without attachment to the fruits of our actions. The verse prompts us to “उठो और ऐसे निर्मल यश का लाभ प्राप्त करो” (Rise and attain the pure glory), emphasizing the purity that comes from performing one’s duty selflessly. Achieving victory over adversaries and relishing the fruits of a prosperous kingdom become a natural consequence when we surrender ourselves as instruments. The warriors mentioned in the verse have already been defeated by the divine, reinforcing the concept that we are but instruments in the cosmic play. Contemplating the philosophy behind the verse invites us to introspect our roles in this world. The Bhagavad Gita challenges the ego-driven narrative of “I am the doer” and redirects our focus towards being instruments guided by a higher intelligence. The verse encapsulates a profound truth – that our actions, no matter how significant, are ultimately orchestrated by a divine force, and our duty is to fulfil our roles with dedication and humility. So, as we navigate the journey of life, let us internalize the message of “निमित्तमात्रं भव” (Only be an instrument) and find solace in the understanding that our efforts when aligned with a higher purpose, lead to a harmonious fulfilment of our roles in the grand symphony of existence. इसलिए, उठो और ऐसे निर्मल यश का लाभ प्राप्त करो जो पुण्यों से ही मिलता है। अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो और एक समृद्ध राज्य का आनंद लो। ये सभी योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे अर्जुन, बस मेरा साधन बनो। (भगवद गीता 11.33) इस श्लोक में श्री भगवान द्वारा एक जटिल समस्या की मीमांसा हो गई है । संसार में मुनष्य ” मैं कर रहा हूं, मैं कर रहा हूं ” यह समझकर वैशयिक अहंकार द्वारा अविभूत होकर आत्महारा हो गया है। वास्तव में क्या मनुष्य कर्ता है ? नहीं नहीं, मुनष्य कर्ता नही है, मुनष्य कर्म का निमित्त मात्र है, कर्म फल संजोजन के लिए एक अद्वितीय विधाता है, इसीलिए मुनष्य का कर्म में अधिकार है फल में अधिकार नहीं है। Therefore, stand up and win glory. Conquer your enemies and enjoy a prosperous kingdom. I have already killed all these warriors. Just be My instrument, O Arjuna. (Bhagavad Gita 11.33) The essence of the verse is that Arjuna is being encouraged to rise and fulfil his duty as a warrior without attachment, understanding that a higher power already determines the outcome and he is merely an instrument in the cosmic play.
मनोविकास परिवार की ओर से सभी आत्मीय जनों को नववर्ष 2024 की शुभकामनाएं।
०२ जनवरी 2024 को मनोविकास द्वारा वैद्य पंडित कैलाश मिश्र “दीनबंधु” जी के सातवें स्मृति, 9 वें दीक्षांत सह पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया जिसका विषय था निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।
दीक्षांत समारोह हमेशा से ही एक एैसा विशेष अवसर होता है, जिसमें हम शुरू के वर्षो में कीगयी कड़ी मेहनत को लक्ष्यों की प्राप्ति व सफलता की प्राप्ति से जुड़ते हुए देखते हैं।यह एक एैसी यात्रा रहती है जो शायद अस्थायी कदमों के साथ शुरू होती है और हमें ऊँचाइयों तक ले जाती है। इस यात्रा में हम कई असाधारण क्षणों का अनुभव करते हैं और उन यादों को बनाते हैं जो आगे के बर्षो में याद की जाती है।
इस व्याख्यान में श्री आर. मुरलीधरन जी, श्री अरविन्द शारदा जी सहित मनोविकास के बोर्ड मेंबर्स शामिल हुए। दीक्षांत समारोह हमेशा से ही एक एैसा विशेष अवसर होता है, जिसमें हम शुरू के वर्षो में कीगयी कड़ी मेहनत को लक्ष्यों की प्राप्ति व सफलता की प्राप्ति से जुड़ते हुए देखते हैं।
श्री आर मुरलीधरन जी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध दार्शनिक स्वामी पार्थसारथी के वरिष्ठ शिष्य हैं। स्वामी पार्थसारथी (उनके शिक्षक) वेदांत दर्शन के महानतम प्रतिपादकों में से एक हैं। उन्होंने वेदांत के अध्ययन, अनुसंधान और प्रचार-प्रसार के लिए छह दशकों से अधिक समय समर्पित किया है।
श्री आर मुरलीधरन जी वाणिज्य में स्नातकोत्तर के रूप में योग्य हैं। एक प्रतिष्ठित कॉर्पोरेट कैरियर को आगे बढ़ाने के बाद, उन्होंने भारत के पुणे, महाराष्ट्र के मालावली में वेदांत अकादमी में अपने आध्यात्मिक गुरु, स्वामी पार्थसारथी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में वेदांत और जीवन में इसके व्यावहारिक अनुप्रयोग पर गहन अध्ययन और शोध किया। वेदांत अकादमी से स्नातक होने के बाद, उन्होंने अपना जीवन वेदांत के अध्ययन, अनुसंधान और प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया।
उन्होंने व्याख्यान, अध्ययन कक्षाएं, वार्ता आदि आयोजित करके वेदांत के ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। उन्होंने एक समन्वयक के रूप में स्वामीजी के लिए सेमिनार भी आयोजित किए। उन्होंने भारत और विदेशों में वेदांत अध्ययन कक्षाएं संचालित की थीं। निगमों, संस्थानों आदि के लिए व्यक्तित्व विकास और स्व-प्रबंधन पर वार्ता प्रस्तुत की गई।
ऊँ भूर्भुव: स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात |
प्रमाण पत्र
चिरंजीवी भुवन जी,
मेरा प्यारा आत्मज, जीवन की पवित्रता, प्रखरता का समावेश कर समग्र जीवन सूर्य चंद्र की तरह बिना संकोच, स्वतंत्र चिंतन विवेक से अपने मार्ग पर चलते रहो। मेरी मंगल कामना सदा तुम्हारे साथ रहे। ईश्वर से मौन ज्योति जीवन में जो आये वो सभी तुम्हे प्रतिक्षण अंतरात्मा से संचार कर अपने जीवन को धन्य मानूंगा। शांति सत्य प्रयत्नों से जुड़ी है।
आचरणों में ही ज्ञान की सार्थकता है। तुम अपना आत्मसमर्पण परमपिता से सामने करो, अंतरात्मा की सृजन श्रद्धा शक्ति से करो। अहंग्ता महानता का एक शत्रु है। अपना सुधार विश्व की बड़ी सेवा है। नि:स्वार्थ प्रेम से बड़ा दान दुसरा नहीं है। तुम्हार व्यवहार ही आत्मदर्पण है।
मानवीय सच्चा गुण आलोक!
असत से सत्य की ओर, विनाश से विकास की जीवन को साधना है। मानव जीवन अनमोल है।सत्य प्रयत्नों के साथ शान्ति जोड़कर जीवन को सफल बनाना उत्तम मार्ग है। तुम्हे जीवन का श्रेष्ट उपलब्धि पाने हेतु अपने कदम को मेरे द्वारा चुने साथी के साथ हिमालय की बर्फीली शिखर की ओर बढ़ कर अपने उद्येश्य की मंजिल तक पहुंचना है। यही वचन तुमसे चाहता हूँ।
पिता पुत्र की गलती नहीं देखते उसे सदैव प्यार ही प्यार देकर जीवन में उदारता, सहानुभूति, मधुरता, परमार्थ का पाठ पढ़ाते हैं। “मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, गुरु देवो भव:”, बेटा! कभी भी जीवन में कुविचार इनके प्रति नहीं लाना चाहिए। अश्लीलता के नरक से बचकर संयम शीलता की ओर कदम बढ़ाना ही स्वर्ग के मार्ग पर चलना है। मेरे पास प्रेम से बढ़कर उत्कृष्ट वस्तु दूसरा नहीं है जो तुम्हे देता हूँ। पिता को दिये वचन को ढृढ़ संकल्प के साथ पालन करना। कठिनाइयों से किसी सउद्देश्य लिये जूझना तुम्हारा महापुरुष होने के लक्षण है।
( तीसरा पड़ाव प्रारंभ )
तुम्हारा पापाजी
कैलाश ८-०१-०४