हमारा कर्म, धैर्य, बुद्धि और खुशी ही हमारे सुख दुःख का कारण है
सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके मन की प्रकृति के अनुरूप होती है। सभी लोगों में श्रद्धा होती है चाहे उनकी श्रद्धी की प्रकृति कैसी भी हो। यह वैसी होती है जो वे वास्तव में है।पारितोषिक की अपेक्षा किए बिना और मन की दृढ़ता के साथ कर्तव्य समझते हुए किया गया यज्ञ सत्वगुणी प्रकृति का है। अर्थात् जो कर्म करने वाला व्यक्ति बिना फल की इक्षा, बिना किसी अभिमान के तथा पूरी श्रद्धा एवं लगन से कर्म करे तो उनकी सात्विक प्रकृति है। लेकिन जब फल प्राप्ति की इक्षा से कर्म करे और जो कर्म में आवेश या ईर्ष्या भी रखता हो और जो सफलता में अत्यधिक खुश और असफलता में उतना ही दुखी हो जाये यह राजसिक प्रकृत्ति है। जो पागलपन, कुटिलता, आलस या मायूसी की अवस्था के साथ कर्म करे तो वह कर्ता तामसिक प्रकृति का है।
सत् शब्द का अर्थ शाश्वत और साधुता है। इसका प्रयोग शुभ कर्मों को सम्पन्न करने के लिए किया जाता है। तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्यों को सम्पन्न करने में प्रतिष्ठापित होने के कारण इसे ‘सत्’ शब्द द्वारा वर्णित किया जाता है। अतः ऐसे किसी भी उद्देश्य के लिए किए जाने वाले कार्य के लिए ‘सत्’ नाम दिया गया है। सत्वगुणी प्रकृति से किया गया कर्म जो फल की इक्षा के साथ किया जाता है जहां ना तो उदद्वग और ना ही अभिमान की भावना होती है। वहां कर्म जो फल की इक्षा के साथ किया जाये, उदद्वग एवं अभिमान की भावना के साथ किया जाये वह कर्ता का राजसिक प्रकृत्ति है।और कर्म जो भ्रम की अवस्था में अच्छे बुरे परिणाम की परवाह एवं अपनी शक्ति के निर्धारण किये बगैर किया जाये वह कर्ता का तामसिक प्रकृति है।
यदि बुद्धि जो अच्छे और बुरे में भेद कराये और जो धर्म का ज्ञान कराये तो इस सतो गुण की प्रकृति से हमारे सुखों का अनुभव निश्चित है । लेकिन जब राजसिक गुण के कारण बुद्धि जब अच्छे बुरे कर्म का पूरा ज्ञान होने देता बल्कि आंशिक ज्ञान करता है तो सुख की हानि होना शुरू होता है और कभी अच्छा कभी बुरा हमारे जीवन में होना शुरू हो जाता है। और जब बुद्धि या समझ को अंधा कर दें और मनुष्य को हमेशा गलत दिशा की ओर ही प्रेरित करे तो इस तामसिक प्रकृति के बौद्धिक प्रकोप से दुःख ही दुःख होना शुरू हो जाता है
जीवन में धैर्य जो योग से युक्त हो, जो मस्तिष्क, ज्ञानेन्द्रियों एवं जीवन को पुरे संकल्प के साथ संतुलित करे तो वही सत्वगुणी प्रकृति के कारण हर समय सुख और आनंद का अनुभव होने लगता है ।
वैसा धैर्य जो कर्म के फल के साथ कम या ज्यादा होता है, जो मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं में संतुष्टि पर आधारित हो तो राजसिक प्रकृत्ति के कारण सुख और आनंद का अनुभव कम होने लगता है । और जब धैर्य जिससे मनुष्य अपनी निद्रा, भय, विषाद(दुःख), एवं शोक का त्याग न कर पाए तो तामसिक प्रकृति से जीवन में दुःख ही दुःख आने लगता है।
सत्वगुणी प्रकृति से मिली खुशी मानसिक शांति देती है और सदैव स्थित रहती है। खुशी जो ज्ञानिन्द्रिओं की तृप्त करके प्राप्त हो, जो शुरू में बड़ी लुभावनी लगे परन्तु अंत विष के प्रमान हो यह राजसिक प्रकृति से मिली ख़ुशी है। खुशी जो निद्रा, कामना और आलस से प्राप्त हो। जिसमे हमेश भ्रम की स्थिति बनी रहे वह तामसिक प्रकृति है।
हमारे प्रकृति के तीन गुणों से भी आगे “ओम्-तत्-सत्” शब्दों की प्रासंगिकता है जो परम सत्य के विभिन्न रूपों के प्रतीक हैं। ‘ओउम’ शब्दांश ईश्वर के निराकार रूप की अभिव्यक्ति है। ‘तत्’ शब्दांश का उच्चारण, परमपिता परमात्मा को अर्पित की जाने वाली क्रियाओं तथा वैदिक रीतियों के लिए किया जाता है, ‘सत्’ शब्दांश का तात्पर्य सनातन भगवान तथा धर्माचरण से है। एक साथ प्रयोग करने पर ये अलौकिकता की अवधारणा की ओर ले जाते हैं। आज के इस विचार के अंत में यह बात कहूँगा कि यदि यज्ञ, तप और दान धर्म ग्रंथों के विधि-निषेधों की उपेक्षा करते हुए किए जाते हैं तब ये सभी कृत्य निरर्थक सिद्ध होते हैं।